बाल विकास(ctet success topic) 6

विकास की अवधारणा :- विकास की प्रक्रिया अविरल क्रमिक तथा सतत् प्रक्रिया है, जो बालक में शारीरिक, क्रियात्मक, संज्ञात्मक, भाषात्मक, संवेगात्मक तथा सामाजिक विकास करती है l


बाल विकास का तात्पर्य है :- बालक के विकास की प्रक्रिया, यह उसके जन्म से पूर्व गर्भ में ही प्रारम्भ हो जाती है, विकास की इस प्रक्रिया में वह गर्भावस्था, शैशवावस्था, बाल्यावस्था, किशोरावस्था, तथा प्रौढ़ावस्था इत्यादि अवस्थाओं से गुजरते हुए परिपक्वता की स्थिति प्राप्त करता है l



विकास के अभिलक्षण :-
-विकास जीवन पर्यंत चलने वाली प्रक्रिया है l
-विकासात्मक परिवर्तन सामान्य से विशिष्ट की ओर, सरल से जटिल की ओर एकीकृत से क्रियात्मक स्तरों का अनुसरण करते है l

-विकास की प्रक्रिया सतत् के साथ-साथ विछिन्न अर्थात दोनों प्रकार की होती है, कुछ परिवर्तन तेजी से होते हैं और सुस्पष्ट रूप से दिखाई भी देते हैं, जैसे पहला दांत निकलना जबकि कुछ परिवर्तन दिन प्रतिदिन की क्रियाओं में आसानी से देख पाना संभव नहीं होता, क्योकि वे अधिक प्रखर नहीं होते जैसे व्याकरण को समझना l
-विकास बहुत ही लचीला होता है, इसका अर्थ है कि एक व्यक्ति अपनी पिछली विकास दर की तुलना में किसी निश्चित क्षेत्र में आकस्मिक रूप से अच्छा सुधार प्रदर्शित कर सकता है, एक अच्छे परिवेश के द्वारा शारीरिक शक्ति, स्मृति और बुद्धि के स्तर में अनापेक्षित सुधार ला सकता है l
-विकासात्मक परिवर्तन मात्रात्मक एवं गुणात्मक दोनों प्रकार के हो सकते हैं जैसे आयु के साथ कद का बढना मात्रात्मक विकास परिवर्तन है वहीँ नैतिक मूल्यों का निर्माण गुणात्मक विकास परिवर्तन हैl
-विकास सामाजिक व सांस्कृतिक घटकों से प्रभावित हो सकता है इनमें प्राकृतिक घटना, पारिवारिक दुर्घटना एवं रीति रिवाज इन घटकों के उदाहरण हैं जिनका विकास पर गहरा असर पड़ता है l
-विकासात्मक परिवर्तनों की दर या गति में व्यक्तिगत अंतर हो सकते हैं, यह अंतर अनुवांशिक घटकों अथवा परिवेशीय प्रभावों के कारण हो सकते हैं l

-कुछ बच्चे अपनी  आयु की अपेक्षा कुछ अधिक क्रियाशील हो सकते हैं,  वही कुछ बच्चों के विकास की गति बहुत  धीमी होती है l

वृध्दि एवं विकास में अंतर


मानव विकास की अवस्थाएं:-


-विकास एक सतत् अर्थात लगातार  चलते रहने वाली प्रक्रिया है l
-शारीरिक विकास एक सीमा अर्थात  परिपक्वता प्राप्त करने के पश्चात रुक जाता है परंतु मानसिक विकास चिंतन, भाषा-ज्ञान, संवेग, चरित्र-विकास, समाजिक-व्यवहार इत्यादि के विभिन्न स्तरों के अनुसार परिवर्तित होता रहता है l
-विभिन्न आयु स्तरों के आधार पर मानव विकास की निम्न अवस्थाएं  निर्धारित की गई है

   1-  शैशवावस्था- जन्म से 6 वर्ष की आयु तक
   2-  बाल्यावस्था- 6 वर्ष की आयु से 12 वर्ष की आयु तक
   3- किशोरावस्था- 12 वर्ष  की आयु से 18 वर्ष की आयु तक
   4-  व्यस्क अवस्था- 18 वर्ष की आयु से मृत्यु तक


बाल विकास की अवस्थाएँ और इसके अन्तर्गत होने वाले विकास
अधिगम:-
-अधिगम का अर्थ होता है सीखना, अधिगम एक ऐसी प्रक्रिया है जो जीवन पर्यंत चलती रहती है l इसके द्वारा हम ज्ञान अर्जित करते हैं, व्यवहार में परिवर्तन लाते हैं l
-जन्म के तुरंत बाद व्यक्ति सीखना प्रारंभ कर देता है, अधिगम के द्वारा ही व्यक्ति का सर्वंगीण विकास होता है व वह इसके माध्यम से जीवन के लक्ष्यों को प्राप्त करता है l
-जैसा की हमने पूर्व में कहा कि अधिगम एक सीखने की प्रक्रिया है, परंतु रटकर किसी विषय वस्तु को याद करना अधिकम नहीं कहा जा सकता है क्योंकि अधिगम व्यवहार में बदलाव लाता है और रटी हुई  विषयवस्तु व्यवहार में बदलाव लाने में इतनी सक्षम नहीं होती l



बालक के विकास की विभिन्न अवस्थाएं एवं उनका अधिगम से संबंध:-

शैशवावस्था व अधिगम
-जन्म से 6 वर्ष तक की अवस्था शैशवावस्था  कहलाती है l
-इसमें जन्म से 3 वर्ष तक बच्चों का शारीरिक एवं मानसिक विकास तीव्र गति से होता है l
-इस काल में जिज्ञासा की  तीव्र प्रवत्ति बच्चों में पाई जाती है l

-इसी काल में बच्चों का समाजीकरण में प्रारंभ हो जाता है मनोवैज्ञानिक दृष्टि से यह  अवस्था भाषा सीखने की सर्वोत्तम अवस्था है  तथा शिक्षा की दृष्टि से अत्यधिक महत्वपूर्ण है l

बाल्यावस्था एवं अधिगम:-


1-6 वर्ष से 12 वर्ष तक की अवस्था बाल अवस्था कहलाती है l
2-इस के प्रथम चरण 6 से 9 वर्ष में बालकों की लंबाई एवं भार  दोनों बढ़ते हैं बच्चों में पढ़ाई के प्रति रुचि चिंतन एवं शक्तियों का विकास होता है l
3-बाल अवस्था में बच्चों के सीखने की गति मंद वा सीखने का क्षेत्र विस्तृत हो जाता है l





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